भारत के इतने प्रदूषित होने का क्या कारण हैं 

दिल्ली दिल वालों की दिल्ली लेकिन आज कल ये शहर एक और नाम से जाना जा रहा है और वो है दुनिया की सबसे प्रदुषित राजधानी। दुनिया भर में हवा की गुणवत्ता पर नजर रखने वाली संस्था आई क्यू एयर ने लगातार चौथे साल दिल्ली को इस खिताब से नवाजा है।

रैंकिंग में भारत को दुनिया का तीसरा सबसे प्रदुषित देश बताया गया है। इस मामले में पहले और दूसरे पायदान पर बांग्लादेश और पाकिस्तान है, जो भारत के ही अगल बगल है। यानी पूरा भारतीय उपमहाद्वीप गंभीर प्रदूषण की चपेट में है। हो सकता है कि आपको दिखाई ना दे लेकिन आपके आसपास की हवा जहरीली हो रही है।

दुनिया के सबसे प्रदुषित देश बांग्लादेश की राजधानी ढाका। ये शहर पानी पर भी चलता है और गाड़ियों में भी।

रिक्शों की भी यहाँ कोई कमी नहीं है। 1,00,00,000 से ज्यादा लोग इस शहर को अपना घर कहते हैं, लेकिन यहाँ की हवा में सांस लेना दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा है।

स्विस जलवायु समूह आई क्यू एयर ने पिछले साल 123 देशों में बांग्लादेश को वायु प्रदूषण के मामले में सबसे खराब पाया। इस देश में पी एम 2.5 का स्तर 79.9 माइक्रोग्राम प्रतिघन मीटर पाया गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है की इसका औसत स्तर सालाना पांच माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

पी एम 2.5 का अर्थ हवा में मौजूद उन महीनकणों से होता है जिनका व्यास ढ़ाई माइक्रो या फिर उससे भी छोटा होता है। ये बहुत खतरनाक होते हैं क्योंकि ये सांस के साथ आसानी से हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं। आई क्यू? एयर की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में साथ ही देश ऐसे हैं जो हवा की गुणवत्ता को लेकर।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की कसौटी पर खरे उतरते हैं। इनमें शामिल हैं ऑस्ट्रेलिया, एस्टोनिया, फिनलेंड, ग्रेनाडा, आइसलैंड, मॉरीशस और न्यू ज़ीलैण्ड। वैसे सबसे साफ हवा फ़्रेंच पोलेनीशिया में पाई गई ये दक्षिणी प्रशांत महासागर में टापुओं का एक समूह है।

जहाँ फ्रांस का शासन है इसीलिए पैरिस ओलंपिक के दौरान सर्फिंग के मुकाबले यहीं पर होंगे। जबकि ये जगह पेरिस से 15,700 किलोमीटर दूर है लेकिन सर्फिंग के लिए एकदम परफेक्ट है। क्नॉइस।

वहीं हवा की खराब गुणवत्ता के मामले में पाकिस्तान दूसरे स्थान पर है। जहाँ पी एम 2.5 का सालाना स्तर 73.7 माइक्रोग्राम प्रतिघन मीटर दर्ज किया गया, वहीं भारत 54.4 माइक्रोग्राम के आंकड़े के साथ इस फेहरिस्त में तीसरे नंबर पर है। पिछले साल दिल्ली में पी एम 2.5 का सालाना स्तर।

सात माइक्रोग्राम प्रतिघन मीटर रहा और इस तरह ये शहर लगातार चौथी बार दुनिया की सबसे प्रदुषित राजधानी बना। अध्ययन बताते हैं कि प्रदूषण की वजह से दिल्ली में रहने वाली आबादी की जीवन प्रत्याशा 10 साल कम हो रही है। प्रदूषण का असर हमारे मस्तिष्क, फेफड़ों, आँखों, हृदय और पेन क्रियास पर होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि प्रदूषण की वजह से दुनिया भर में हर साल करीब 70,00,000 लोग मारे जाते हैं।

क्या आप जानते हैं कि इस धरती पर जितना भी पानी मौजूद है उसमें सिर्फ आधा प्रतिशत पानी ऐसा है जिसे हम इस्तेमाल कर सकते हैं यानी जो ताजा पानी है बाकी जो भी पानी है वो या तो महासागरों में मौजूद खारा पानी है या फिर ग्लेशियर और बर्फ़ की चादर के रूप में जमा हुआ है।

जैसे जैसे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, दुनिया के कई इलाकों में पीने के पानी का संकट गहरा रहा है। बेंगलुरु जैसे मेगा सिटी की मिसाल हम सबके सामने है। हम अपने शहरों को चाहे जितना चमकीला बना लें, लेकिन पानी के बिना सब कुछ सुना है, इसलिए जरूरी है कि हम एक एक बूंद की कीमत समझे।

पानी इस धरती पर जीवन के लिए सबसे जरूरी अहम तत्वों में से एक।

इसीलिए जब कही जीवन और उसकी संभावनाओं को तलाशा जाता है तो सबसे पहले यही खोजा जाता है कि क्या वहाँ पानी की मौजूदगी के कोई संकेत हैं? क्योंकि पानी है तो ही जीवन हो सकता है। धरती का दो तिहाई हिस्सा पानी से ढका है, फिर भी पानी दुर्लभ होता जा रहा है क्योंकि इसमें ज्यादातर पानी।

खारा है। हमारे जीवन के लिए ताजा पानी चाहिए जो नदियों, झीलों या फिर ग्लेशियरों में मौजूद है।

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि दुनिया भर में दो अरब से ज्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए जूझ रहे हैं और दुनिया की लगभग आंधी आबादी साल के किसी ना किसी समय पानी की किल्लत का सामना कर रही है।

और जैसे जैसे जलवायु परिवर्तन हो रहा है, इंसानों की आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए पानी का संकट और बढ़ सकता है।

और जब पानी नहीं मिलेगा तो इसका असर हमारे खाने की आपूर्ति पर भी होगा, क्योंकि इंसान जितना भी ताजा पानी इस्तेमाल करते हैं, उसमें औसतन 70 फीसदी खेती में ही होता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का अनुमान है कि एक व्यक्ति का रोजाना का खाना उगाने के लिए औसतन 2000 लीटर से लेकर 5000 लीटर तक पानी लगता है।

एक किलो अनाज उगाने में एक से तीन टन तक पानी खर्च होता है, जबकि एक किलो बीफ के उत्पादन में 15 टन तक पानी लग जाता है। अनुमान है किस धरती पर 140,00,00,000 घन किलोमीटर पानी है लेकिन इसमें से सिर्फ 0.003% ही ताज़े पानी के स्रोतों में है।

यानी लगभग 45,000 घन किलोमीटर, जिसे हम पीने, साफ सफाई, खेती और उद्योगों के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। पिछली सदी में जनसंख्या बढ़ने से पानी का इस्तेमाल दोगुना हो गया है। इसीलिए इसका इस्तेमाल किफायत और समझदारी से करना।

और जरूरी हो गया है।

पिछले दिनों यूरोपीय मानव अधिकार अदालत ने एक बहुत ही अहम फैसला सुनाया। स्विट्जरलैंड की कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने मिलकर यूरोप की इस सबसे बड़ी अदालत का दरवाजा खटखटाया और गुहार लगाई कि उनके देश की सरकार जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है।

और इस वजह से जब भीषण गर्मी पड़ेगी, लू चलेगी तो उससे उनकी जान जाने का खतरा होगा। अदालत ने महिलाओं की इस दलील को सही माना और स्विट्जरलैंड को फटकार लगाई और कहा कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर उसकी कमजोर नीतियों से बुनियादी मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। इस मामले पर ये किसी देश के खिलाफ़ पहला अदालती फैसला है जिसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी।

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