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क्या कंचन जंगा पर्वत में राक्षस होते हैं

पर्वतारोहियों का एक दल भारत की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचा। जब दल वापस आया तब उन्होंने बताया कि वो चोटी से पांच फिट नीचे खड़े थे। इतना सुनते ही सिक्किम के राजा भड़क गए। वो उससे भी बोले, जीस आदमी की बात तुम कर रहे हो, उसकी हाइट ही 5 फिट है। अगर वो चोटी से पांच फिट नीचे खड़ा था तो भी उसका सिर मेरे देवता से एक फिट ऊपर होगा। सिक्किम के लोगों का कहना था इस घटना के बाद।

सिक्किम में मौसम ने अपना कहर बरपाया। भारी बारिश ने आस पास के लाखों को तबाह कर दिया। जिसने भी चोटी के करीब जाने की कोशिश की उसका हश्र अच्छा नहीं हुआ। सिक्किम में लंबे समय से इस पहाड़ की सुरक्षा राक्षस कर रहे हैं। जब ये पहाड़ खुश होता है तब फसलें अच्छी होती है। नदियों में मछलियां बढ़ जाती हैं पर जब नाराज होता है तब आती है भारी तबाही। हम बात करें भारत के सबसे ऊंचे पहाड़ कंचन जघा की पांच रोगियों से मिलकर बना एक पहाड़ जिसने भी इस पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की वो या तो मारे गए या चल नहीं सके। बड़ी मुश्किल से इसे पता किया गया। स्थानीय लोगों से देवता मानते हैं विदेशियों के लिए एड्वेंचर और वैज्ञानिक के लिए एक रहस्य क्या है इस पर्वत की कहानी? यानी आज के एपिसोड में विस्तार से नमस्कार मेरा नाम है दिव्यांशी और आप देख रहे हैं हमारा खास प्रोग्राम। तारीख शुरू करते हैं। इतिहास से आठवीं शताब्दी में तिब्बत में एक बौद्ध साधु हुए। नाम था पद्म संभव। तिब्बत में सम्मान से उन्हें लोपो रिनपोछे कहा जाता था। हिंदी में इसका मतलब होता है वो गुरु जिसके जैसा कोई औण ना हो। इन्हीं गुरु ऋण पोज़ी ने पहली बार कंचन जगा कोई दीदी के रूप में पूजा और तब से बौद्धमान्यताओं में कंचन जंघ हाँ का एक अलग महत्त्व है। कंचन जगा शब्द का मतलब क्या होता है? तिब्बत के बौद्ध धर्म में कंचन जगा को कई नामों से जाना जाता है। कंचन, जंगा, काचन और दीज़ों दो शब्दों से मिलकर बना है। इसका मतलब होता है किले के समान बर्फ़ से ढका पर्वत। एक और मतलब होता है बर्फ़। बर्फ़ के पांच खजाने मतलब की कंचन जंगा की पांच रोगियों में सोना, नमक, जवाहरा धर्म ग्रंथ और शस्त्र दफ़न हैं। दिलचस्प बात हैं की कंचन जगा वाकई में पांच छुट्टियों से मिलकर बना हैं। कंचन जगा प्रथम, कंचन जंगा मध्य कंचन जगा पश्चिम, कंचन जंगा दक्षिण और कांग बाचेन परमान्यता यही आकर नहीं रोकती। तिब्बती बहुत समुदाय में इस पर्वत को बेइूल डेमोशोन यानी मोतर तकलीफ से आगे की एक दुनिया माना जाता हैं। यानी वो घाटी जो छिपी हुई है, जो मृत्यु, बिमारी और पीड़ा से भी आगे की दुनिया है। साथ इस पहाड़ का शुरुआत से सिक्किम के लेपचा समुदाय से नाता रहा। लेपचा समुदाय का इतिहास क्या है इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। पर मान्यता है कि इनका संबंध कंचन जगा की बर्फ़ से है। इसलिए लेप चलो कंचन जगा को पवित्र और खुद को कंचन जगा के बर्फ़ से पैदा हुआ मनुष्य मानते है। इतिहास पर रिपोर्ट्स पब्लिश करने वाली वेबसाइट लाइव हिस्टरी इंडिया में यश मिश्रा

की लेख के मुताबिक तेरहवीं सदी तक सिक्किम में बाहरी लोगों का आना जाना ना के बराबर था। फिर तिब्बत से लोगों ने आकर यहाँ बसना शुरू किया। यहाँ आने वाले तिब्बती अपने को लहापो कहा करते थे। आगे चलकर नई भूटिया कहा जाने लगा। समय के साथ इलाके में इनका दबदबा बढ़ता चला गया। लेक्चर पहले से सिक्किम के इलाके में थे। लोगों के आने से पहली बार लेपचा भी बौद्ध धर्म से परिचित हुए और फिर सतरवी सदी में भूटे और लेपचा दोनों ने मिलकर स्थापना की। नाम गाल साम्राज्य की गाल बौद्ध धर्म को मानता था और बौद्धों में कंचन जघा को देवी के रूप में पूजा जाता था। इसलिए भूटिया और लेप्चर के साथ आने के बाद कंचन जंगा की अहमियत और ज्यादा बढ़ गई। दोनों के लिए पर्वत एक पवित्र स्थल बन गया। सब कुछ ऐसे ही चलता रहा और फिर आई 19 वीं सदी। देश में अंग्रेज आ चूके थे और उस समय भारत के पड़ोस नेपाल में गुरखाओं का राज़ था। गुरखाओं ने भारत के नॉर्थ और नॉर्थ ईस्ट लाखो पर कब्जा करना शुरू किया।

इस कब्जे की जद में सिक्किम भी आ गया, जिसे नाम गयाल साम्राज्य पर खतरा मंडराने लगा। नाम गयाल साम्राज्य में तब अंग्रेजों से मदद की गुहार लगाई। अंग्रेजों को चाहिए थी भारत की अधिक से अधिक जमीन, इसलिए उन्हें भी सिक्किम में दिलचस्पी थी। अंग्रेजों ने गुरखाओं पर हमला किया। 1814 से 1816 तक चले इस युद्ध में गुड़गांव की हार हुई। इस हार के साथ ही अंग्रेजों के लिए तिब्बत जाने का दरवाजा खुल गया। फिर नाम गयाल साम्राज्य और अंग्रेजों के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत अंग्रेजों को दार्जिलिंग मिल गया। ब्रिटिशर्स को इससे दो फायदे हुए। एक तो उन्हें बंगाल की गर्मी से राहत मिल गई। दूसरा दार्जिलिंग से हिमालयन रेंज के

सर्वेक्षण का काम भी आसान हो गया। सर्वे करने वालों की दिलचस्पी क्षेत्र में बढ़ती जा रही थी। 1878 से 1881 तक एक ब्रिटिश कैप्टन हेच जे। हरमन ने सिक्किम का रेगुलर सर्वे शुरू किया। कैप्टन हरमन ने उस क्षेत्र में मौजूद अन्य पहाड़ों जैसे ला पर भी चढ़ाई की कोशिश की। साल 1881 में वो कंचन जगा की तलहटी तक पहुंचने में कामयाब भी रहे पर घने जंगल वाला रास्ता होने की वजह से उनके तबियत बिगड़ने लगी और उसी साल कैप्टन हरमन की मौत हो गई।

पर मरने से पहले उन्होंने अपने सर्वे का नक्शा ब्रिटिश प्रशासन को भेज दिया था। इस नक्शे को 1882 में पहली बार प्रकाशित किया गया। इन सब बातों से चुगियाल राजवंश परेशान तो वो नहीं चाहता था की उस क्षेत्र में विदेशियों की आवाजाही पढ़ी। इसके बाद क्षेत्र में आने वाले अंग्रेज कंचन जंघा एक्सप्लोर करने के लिए वहाँ के लोकल लोगों की मदद लेने लगे।

ब्रिटिशों  का आखिरी दशक अब शुरू हो चुका था और इस दौरान दो ब्रिटिश अधिकारियों की सिक्किम और खासकर कंचन जंघा में दिलचस्प आ गई। पहले थी जे सी व्हाइट जे सी व्हाइट तब सिक्किम के पोलिटिकल ऑफिसर के तौर पर तैनात थे, वो यहाँ 20 साल से रह रहे थे। दूसरे थे कलकत्ता के एक फोटोग्राफर टी हाफ्मैन। दोनों ने तक का सफर किया और 5350 मीटर की हैट पर पहुँच गए। इसके बाद उन्होंने उत्तर की तरफ बढ़ना शुरू किया और तिब्बत बॉर्डर के पास नाकूला तक पहुँच गए।

पहली बार उत्तर से पर्वत की तस्वीर भी वापस लौट कर हाफ में ने रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी लंडन में अपनी शानदार तस्वीरों के साथ लेक्चर दिया। वहीं जे सी वै टी सिक्किम और भूटान नाम से किताब लिखी। इलाके के सर्वेक्षण में अंग्रेजों ने कंचन चंगा के आसपास की पहाड़ियों, घाटियों और वनस्पतियों पर रिसर्च की। पर इसकी दुर्गमता की वजह से कोई इस पर चढ़ने की कोशिश नहीं करता। दुनिया की सबसे ऊंचे पहाड़ एवरेस्ट पर सफलता पूर्वक चलने वाले भी कंचन जगा की चोटी तक नहीं पहुँच पाते, लेकिन चुकी ठहरे इंसान हमारे नेचर में हार मानना नहीं है, बल्कि कोशिश करना है तो कंचन जगा पर चढ़ने की लगातार कोशिशों की गई। साल 1905 में इस कोशिश में की यूरोपियन पर्वतारोह या तीन स्थानों कोली मारे गए। इसके बाद भी कई दशकों तक इस पर चढ़ने की कोशिश जारी रही पर कोई कोशिश सफल नहीं हो सकी। मानताए कहती है, इस पहाड़ की रक्षा एक राक्षस करता है। लोग ये भी मानते है क्षेत्र में एक विशाल और खतरनाक जीव येति पाया जाता है। कई लोगों ने येति के पैरों के निशान और उसे सामना होने की कहानियों बयान की है। कुल मिलाकर जिसने भी इस पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की वो या तो मारा गया या चल नहीं सका। इसके बाद कैलेंडर पर साल आ जाता है 1929 का। जर्मनी की एक नौ सदस्यों वाले साहसी दल ने कंचन जघा पर चढ़ाई का फैसला किया। इनकी अगुवाई कर रहे थे पॉल बॉय। 18 अगस्त 1929 को ग्रीन लेक से कुछ दूरी पर एक बेस कैंप बनाया गया,

था कंचन जगाह पर नए रास्ते चढ़ाई की जाए। 16 सितंबर को एक ऊंची चोटी पर पहुँच भी गए, लेकिन 7100 मीटर की हैट पर मौसम खराब हो गया और पोल को अपने दल के साथ वापस लौटना पड़ा। इसके बाद 1931 में पॉल ने फिर से कंचन जगा पता करने की कोशिश की। इस बार टीम में 10 जांबाज जर्मन शामिल थे। उन्होंने फिर से 1929 वाले रूट को फॉलो किया। बेस कैंप सिक्स तक पहुंचे , पर 7360 मीटर पर मौसम लगातार बेरहम होता गया और कैंप लगाने में मुश्किल आने लगी। इस दौरान 10 सदस्यों वाले दल ने पैर फिसलने और बीमार होने की वजह से अपने चार साथी खो दिए पर चढ़ाई तब भी जारी रही। कुछ दिनों में दलकंचन जघा की पूर्व दिशा भी साइट के सबसे ऊंचे पॉइंट पर पहुँच गया। पर यहाँ से आगे बिल्कुल खड़ी और खतरनाक बर्फीली चढ़ाई थी, जिसे पार करना नामुमकिन था। एक बार फिर से पॉल का कंचन जगा पता करने का सपना सपना ही रह गया।

अंग्रेजों ने भारत से रूखती ली, सिक्किम किसका होगा ये तय नहीं था। सिक्किम राज़ परिवार ने तब भी कंचन जगा की पवित्रता को कायम रखा, पर अंग्रेजों की सिक्किम और हिमालय में दिलचस्पी कम नहीं हुई। 1955 में एक ब्रिटिश दल ने सिक्किम के राजवंश से कंजन जगा पर चढ़ने की इजाजत मांगी क्योंकि कंचन जगा को देवता का दर्जा हासिल है। इसलिए ब्रिटिश दल से ये वादा लिया गया। वो धार्मिक मान्यताओं का ख्याल रखते हुए चोटी से छिपी दूर ही रहेंगे। उन्होंने इस वादे का सम्मान करते हुए

चोटी से चपेट नीचे तक की चढ़ाई की। कंचन जंगा और भारत के रिश्ते में एक महत्वपूर्ण पड़ाव आया था। 1975 में देश की पी एम थे इंदिरा गाँधी 1971 की जंग के बाद इंदिरा गाँधी उत्साह से लबरेज थी। सिक्किम उनके लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि अगर सिक्किम चीन के रास्ते जाता तो भारत का सिलीगुड़ी कॉरिडोर जिसे चिकन नेक कहा जाता है वो खतरे में पड़ जाता और पूरी नॉर्थ ईस्ट से भारत का संपर्क टूट जाता। सिक्किम को कब्जे में लेने के लिए इंदिरा गाँधी ने विश्वास जताया। तब के रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के प्रमुख रामेश्वर नाथ काफ पर सिक्किम, भारत

का हिस्सा कैसे बना, इस बारे में और जानना चाहते हैं तो तारीख का एपिसोड आप देख सकते हैं। डिस्क्रिप्षन बॉक्स में मिल जाएगा। बहरहाल, वापस आते हैं कंचन चंगा के किस्से पर।

में सिक्किम भारत का हिस्सा बन गया और इसके साथ ही कंचन जगा भी। इससे पहले उत्तराखंड के नंदा देवी पर्वत को देश के सबसे ऊंचे पहाड़ होने का दर्जा हासिल था पर सिक्किम के विलय के साथ ही भारत की सबसे ऊंची चोटी बंदी कंचन जघा फिर 2 साल बाद में भारत से कर्नल नरेंद्र कुमार की अगुवाई में भारत का झंडा पहली बार कंचन जगा पर फहराया गया। उसकी कहानी भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल, साल 1977 में तय हो चुका था कि सिक्किम हम भारत का हिस्सा हैं।

अंश की सत्ता समाप्त हो चुकी थी, इसलिए कंचन जगा पर चढ़ाई के लिए सिक्किम की तरफ से जाने की इजाज़त मिल गई। टीम ने जेमो ग्लेशियर के पास ग्रीन लेक नामक एक झील पर अपना बेस कैंप बनाया पर इस दौरान एक हादसा हो गया। रास्ते के निचले सेक्शन में हवलदार से इनकी रस्सियों से नीचे उतरते समय मौत हो गई। आखिरकार उन्होंने उसी रास्ते से जाने का फैसला किया जिससे जाने की कोशिश में पॉल और उनका दल दो बार नाकामयाब हो चूके थे। पर भारतीय दल ने सभी चुनौतियां पार करते हुए 7990 मीटर की रिच पर कैंप लगाया। वहाँ मेजर प्रेमचंद और नायक एन डी शेरपा ने एक पड़ाव डाला। उसके बाद कंचन जगा को हर तरफ से पता किया गया। चोटों का रहस्य अब रहस्य नहीं रह गया था। इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट रह चूके पर्वतारोही हरीश कपाडिया कंचनजन्धा के बारे में लिखते हैं, कंचन जंघाए खूबसूरत और बहुत ही ऊंचा पहाड़ है। सिक्किम के लोगों से देवता मानते हैं नॉर्थ सिक्किम के ऊपर शान से कड़ाई पर्वत आसपास की पहाड़ियों में सबसे ऊंचा है।

फौजी और चढ़े जाने के बाद भी इसकी आपको करने की क्षमता, महिमा और सुन्दरता बरकरार है। इसी साल सरकार ने कंचन जगा के साथ आस पास के घाटियों और जंगलों को राष्ट्रीय धरो और घोषित कर दिया है। ये पर्वत अभी भी पर्वतारोहियों के लिए एक चुनौती और हर साल सैकड़ों लोग उस पर चढ़ने की मंशा ली हिमालय तक आते हैं इस उम्मीद में कि कंचन जगा की देवी उन्हें भी अपना आशीर्वाद देगी।

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