क्या वाकई में भारत में बाघों की संख्या बढ़ रही हैं 

 

50 साल पहले मध्यप्रदेश में प्रोजेक्ट टाइगर की स्थापना हुई थी। इस कड़ी मेहनत की बदौलत बाघों की संख्या बढ़ी है। आज भारत में तीन हज़ार से ज्यादा बाघ हैं।

मध्यप्रदेश के पेंच बाग अभयारण्य में सुबह के 06:00 बजे आप निकले तो आपको बाघ घूमते हुए मिल जाएंगे या

  झरनों और पोखरों के करीब आपको उनके पंजों के निशान मिल जाएंगे।

बाघों को पानी पसंद है। पानी से दूर वो आपको कम ही दिखेंगे। इस लिहाज से जंगल की सेहत के वो असली सूचक हैं। अगर जंगल में स्थिति अच्छी नहीं होगी तो आपको पानी के स्रोत भरे हुए नहीं दिखेंगे। झरने सूखे मिलेंगे। शिकार ढूंढे नहीं मिलेगा और तब बाघ भी नहीं होंगे।
एक बाघ का शव पाने पर परीक्षण करते फॉरेस्ट अधिकारी
बाघों के ज्यादातर बसेरे इंसानी गतिविधियों से खत्म हो चुके हैं। दुनिया के एक तिहाई बाघ भारत में हैं, लेकिन उनकी संख्या में भारी गिरावट आई है। 19वीं सदी में 50,000 से ज्यादा बाघ थे। 1970 का दशक आते आते 300 से भी कम रह गए। उसी के बाद सरकार हरकत में आई और प्रोजेक्ट टाइगर लॉन्च हुआ। इस प्रोजेक्ट के तहत संरक्षित इलाके बनाए गए।
टाइगर रिजर्व दरअसल अभयारण्य है या राष्ट्रीय पार्क तो कानूनन वहां इंसानी दखल नहीं हो सकता। शुरुआती दौर में लोगों को वहां से उठाकर हटा दिया गया। उस स्थिति में आप जानते हैं कि मानवाधिकार हनन जैसी बातें भी हुई। यह 1970 और 80 के दशक की बात है।
आज हालात बिल्कुल अलग हैं। आदिवासी समुदाय जंगलों में रह सकते हैं, जो उनके पुरखों का घर है। बाघ संरक्षण की कोशिशों में उनकी अहम भूमिका है।
कई  गोंड जनजाति के लोग  अभयारण्य के भीतर बसे गांव में रहते हैं। वहां  वो दो हज़ार छह से वन प्राधिकरण के साथ काम कर रहे हैं। वह हर महीने करीब ₹12,000 कमा लेते हैं। पूरे इलाके की गश्त और लोगों को बाघों के बारे में शिक्षित करना यही उनका काम है।
गांव में इतने नासमझ थे, करंट लगाते थे, जो बिजली वाला आता है। हमें करंट लगाते तो कई जगह जानवर डीयर सामान्य के लिए लगाते थे। कई जगह बाघ आ जाते थे। उससे भी दुर्घटना  हो जाया करता था ।
पहले गांव पहले फंदे लगाकर,जहर देकर बाघों का शिकार करते थे लेकिन अब गांव वालो को जागरूक कर उन्हें रोजगार देकर बाघ को बचाया जा रहा हैं जिसका असर भी दिख रहा हैं और बाघों की संख्या बढ़ गई हैं और वो अब उन इलाकों में दिखाई देने लगे हैं जहां पहले दिखना दुर्लभ था।
स्थानीय समुदाय हमेशा से जंगल और उसमें उगने वाली चीजों पर निर्भर रहे हैं। उन पर रोक लगाने का मतलब उनकी रोजी रोटी छीन लेना होगा। 1990 के दशक में पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मध्यप्रदेश में ईको विकास समितियां ईडीसी गठित की थीं। इनका लक्ष्य था वन्य जीव संरक्षण परियोजनाओं में स्थानीय लोगों की भागीदारी, जिसमें उन्हें भी फायदा था।
साल में पर्यटन से जो भी राजस्व आता है, उसका एक तिहाई इन समुदायों को जाता है। हमारी बहुत सारी गतिविधियों में उन्हें भी काम दिया गया है। उनमें से कुछ तो हमारे स्थायी कर्मचारी हैं और बहुत से कभी कभार काम करते रहते हैं।
मध्यप्रदेश की अर्थव्यवस्था में वन्य जीव पर्यटन का अच्छा खासा योगदान है। शांताबाई को फायदा हुआ है। उन्होंने वन विभाग से मिलने वाली फंडिंग से एक छोटी सी कैंटीन खोल ली है। पहले बाघों से डरकर रहने वाले लोग अब विभाग के शुक्रगुजार हैं। वन कर्मी रोजाना गश्त पर रहते हैं। बाघों के रास्तों को ट्रैक करते हैं। बाघों की हलचल को रिकॉर्ड करने के लिए वाइल्ड लाइफ कैमरे इस्तेमाल किए जाते हैं। उन्होंने पाया कि सड़कें एक बड़ी समस्या हैं। यह बाघों के बसेरे चीरती हुई निकल रहीं हैं।
हमने पाया कि दूसरी तरफ रहने वाली मादा बाघ बहुत कम इधर की ओर आ पाती थीं। बेशक इक्का दुक्का बार पार हो जाते थे, लेकिन कुल मिलाकर उनकी आबादी बंट गई। उनके कॉरिडोर बंट गए और एक बार यह होता है तो दोनों तरफ अंतः प्रजनन यानी इन ब्रीडिंग होने लगती है। अगर जानवर का चलना फिरना रुक जाए और शिकार भी कम होता चला जाए तो बाघ मवेशियों का शिकार करने लगेंगे। उससे टकराव बढ़ेगा। जानवरों की आवाजाही होती रहे तो बहुत सी चीजों का समाधान हो सकेगा।
इस तरह के अंडरपास बाघों के स्वाभाविक रास्तों की हिफाजत करते हैं। अकेले मध्यप्रदेश में बाघों के ऐसे 23 कॉरिडोर हैं। इनकी सख्त जरूरत है। भारत के सबसे अहम बाघ कॉरिडोर में से हर तीसरा इस राज्य से गुजरता है। लेकिन संरक्षण की कोशिशों का लाभ दूसरी प्रजातियों को भी होता है।
ऐसा नहीं है कि बाघ पक्षियों या बंदरों या फिर दीमक से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन वह ऐसी धुरी बन जाते हैं, जिसके इर्दगिर्द संरक्षण की कोशिशों पर ध्यान दिया जा सकता है। अगर आप उन्हें बचाना चाहते हैं तो आपको भरपूर पानी वाले विशाल इलाकों को बचाना होगा। अगर आप ऐसा कर देते हैं तो खुद बखुद बहुत सी अलग अलग प्रजातियों को बचा पाएंगे।
धीरज मिश्रा
( लेखक फिल्मकार के साथ अपनी घुम्मकड़ प्रवृत्ति के लिए जाने जाते हैं)
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