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लाकडाउन की सच्ची व्यथा हैं भीड़

कोरोना फिल्म समीक्षा
*** स्टार 

कोरोना लॉकडाउन की व्यथा जितनी व्यक्त को जाए कम हैं ना जाने कितने प्रसंग घटना हम लोगो के सामने कई माध्यम से आए उसे ही एक काल्पनिक कथा  में पिरोकर निर्माता, निर्देशक अनुभव सिन्हा ने इस बार उसका ‘रंग’ निकाल दिया है। सिन्हा ने दूसरी पारी में ‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15’, ‘थप्पड़’ और ‘अनेक’ जैसी सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बना कर एक नई आशा जगाई है भीड़ उसी की अगली कड़ी हैं।

फिल्म ‘भीड़’ ब्लैक एंड व्हाइट में बनी है। लॉकडाउन के दौरान सामाजिक असमानता के बारे में है। यह फिल्म कोविड के दौरान लॉकडाउन की अराजकता, हिंसा और डर को दर्शाती है। कोविड के दौरान लगे लॉकडाउन के दौरान हमने अपने टीवी चैनल पर जिन घटनाओं को देखा, उन्ही में से कुछ घटनाओं का रंग और रस निकालकर अनुभव सिन्हा ने ‘भीड़’ का निर्माण किया है। ‘भीड़’ में छोटी- छोटी कई कहानियां हैं। चौकीदार की कहानी है, एक मां की अपनी बेटी को लेकर होने वाली परेशानी की कहानी है, तबलीगी जमात की कहानी है। और, इसके साथ ही तमाम ऐसी कहानियां है जिनमें जातिवाद से लेकर पूरे तंत्र को आईना दिखाने की कोशिश की गई है। लेकिन, ये सब तो दर्शक बार बार देख सुन चुके है। इन खामियों के बावजूद फिल्म ‘भीड़’ एक बार देखे जा सकने लायक फिल्म है और इसके लिए श्रेय जाता है इसकी चुस्त पटकथा को और कलाकारों को, फिल्म में पंकज कपूर ,राज कुमार राव और भूमि पेंडकर जैसे दिग्गज कलाकार ये सब फिल्म को एक नई धार देते हैं।
आशुतोष राणा एक पुलिस इंस्पेकर की भूमिका में हैं, जिनकी कड़वाहट उनके माता-पिता को अस्पताल में बेड नहीं मिलने पर उनके ड्यूटी पर झलकती है। आदित्य श्रीवास्तव की परफॉर्मेंस बहुत अच्छी रही हैं ।

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