चिदंबरम”: संस्कार, प्रकृति और नैतिकता का सम्मेलन

भारत में बहुत कम ऐसी फ़िल्में बनी हैं जिनमें स्त्री-पुरुष संबंध, प्रकृति और संस्कारों का समन्वय दिखाया गया हो| निश्चित तौर पर ऐसी प्रस्तुति के लिए, संबंधों की समझ, संस्कारों के प्रति सजगता और प्रकृति के लिए संवेदना, इन तीनों कारकों का होना अनिवार्य है| अभी का दौर और अभी की पीढ़ी दिग्भ्रमित है और कई बार कामुकता की संतुष्टि के लिए किए गए कृत्यों को स्वतंत्रता के लिए ख समझ बैठती है|

1985 में आई अरविंदन द्वारा निर्देशित मलयालम फ़िल्म, “चिदंबरम” एक अद्भुत फ़िल्म है और इसमें मानसिकता और भावनात्मकता के कई परतों को बड़ी ही सहजता से दिखाया गया है| ऐसा कर पाना अरविंदन जैसे फ़िल्मकार के द्वारा ही संभव हो सकता है, जो चित्रकार भी हो, संगीतकार भी, लेखक भी हो और विचारक भी|

फ़िल्म में शंकरन (भारत गोपी) एक फ़ार्म पर सुपेरिंटेंडेंट होते हैं और जैकब ( मोहन दास ) उनके सहयोगी होते हैं| ये लोग जिस फ़ार्म पर काम करते हैं वह तमिलनाडु और केरल के सीमा पर स्थित होता है और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होता है| इन दोनों के नीचे मवेशियों का ध्यान रखने के लिए, मुनियांदी (श्रीनिवासन) होता है| शंकरन एक हद तक उदार व्यक्ति होते हैं और मुनियांदी जब उन्हें बताता है कि वह विवाह के लिए छुट्टी पर जाना चाहता है, तो वे उसे इस शर्त पर छुट्टी देते हैं कि जल्दी ही सपरिवार वह फ़ार्म पर लौट आएगा| ऐसा ही होता भी है और मुनियांदी अपनी पत्नी शिवाकामी (स्मिता पाटिल) के साथ वापस आता है| प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर नई जगह पर पहले तो शिवाकामी सहमी सी रहती है, फिर उसे धीरे-धीरे उस वातावरण से प्रेम हो जाता है और अंततः वह प्रकृति की स्वच्छंदता को अपनी प्रवृति बना लेती है| यह अंग्रेज़ी के महान कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की प्रकृति के प्रति भावनाओं के जैसा ही क्रमिक विकास है| लेकिन जब शिवाकामी की स्वच्छंद प्रवृत्ति मानवीय संबंधों की परिधि में आती है, तब उसके परिणाम भयंकर सिद्ध होते हैं| वह शंकरन के साथ अपने संबंध विकसित कर लेती है, अपने वैवाहिक संबंधों को भूलते हुए और इसे जारी रखती है, स्वच्छंदता के नाम पर स्वयं को सांत्वना देते हुए| मुनियांदी आत्महत्या कर लेता है और ऐसा दिखाया जाता है कि संभवतः उसने शिवाकामी की भी हत्या कर के उसे ग़ायब कर दिया है| शंकरन इस घटना से पागल सा हो जाता है और प्रायश्चित की इच्छा लिए “चिदंबरम” मंदिर में जाता है| यह वही मंदिर है जहां पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव और काली माता के बीच नृत्य स्पर्धा हुई थी| निकलते समय वह भीख मांगती महिला को कुछ देता है और जब वह महिला सिर उठाती है, तो शंकरन को शिवाकामी का जर्जर और झुर्रियों से भरा चेहरा दिखता है| फ़िल्म यहीं ख़त्म हो जाती है|

यह फ़िल्म सी० वी० श्रीरमण की एक लघु कथा पर आधारित है और सभी का अभिनय शानदार रहा है|

मलयालम फ़िल्मों में समानान्तर सिनेमा के प्रभाव को प्रबल करने वाले अरविंदन ने बहुत सूक्ष्मता से यह दिखाया है कि सुविधा संपन्न समाज, जितनी आसानी से नैतिकता को नकार कर स्वयं को संवेदनशील और आधुनिक घोषित कर लेता है, असल में यह उतना आसान नहीं|

यह एक शानदार और देखने योग्य फ़िल्म है और आज की पीढ़ी को ज़रूर देखनी चाहिए, तब शायद वे समझ जाएंगे कि यह प्रश्न और उद्घोषणा निरर्थक है कि, “क्यों लम्हे ख़राब करें, आ ग़लती बेहिसाब करें|”

© डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह

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