समीक्षा: धीरज मिश्रा
फिल्म की शुरुआत कुछ सुस्ती के साथ होती है, मानो वह दर्शक से कह रही हो—ज़रा ठहरिए, कहानी अपने ढंग से आगे बढ़ेगी। शुरुआती दृश्य गति नहीं पकड़ते, लेकिन जैसे ही “चुरा के तेरी अंखियां” गीत आता है, फिल्म पहली बार अपनी लय में आती है। इसी गीत में नायक-नायिका का पहला मिलन होता है और कैमरा हमें सुंदर और आत्मीय वाराणसी से रू-बरू कराता है, जो सिर्फ़ लोकेशन नहीं बल्कि कहानी की आत्मा बन जाती है।
पहले दृश्य से ही सभी पात्र प्रभाव छोड़ते हैं। संवाद बेहद साधारण हैं, पर असरदार—सीधे ज़मीन से जुड़े हुए। कहानी एक पारिवारिक पृष्ठभूमि में बुनी गई है। एक तरफ़ मुरली का घर, जहाँ तीन पुरुष हैं और कोई स्त्री नहीं; दूसरी ओर महक का भरा-पूरा परिवार। यही विरोधाभास फिल्म की बुनियाद बनता है।
मुरली के पिता दुर्लभ प्रसाद, पेशे से नाई, जब कहानी में आते हैं तो फिल्म में जान आ जाती है। जैसे ही लड़की के घर वालों को पता चलता है कि लड़के के घर में कोई महिला नहीं है, सवाल खड़ा हो जाता है—बिना स्त्री के घर में बेटी कैसे भेजी जाए? यहीं से फिल्म हल्के-फुल्के हास्य के साथ आगे बढ़ती है।
“नौकरी लेने गया था, छोकरी ले के आ गए” जैसे संवाद फिल्म को देसी, सपाट और आत्मीय रंग देते हैं। संजय मिश्रा इस भूमिका में खूब जमे हैं।
महक और मुरली की शादी इसी शर्त पर अटक जाती है कि घर में महिला होनी चाहिए। समाधान निकलता है—दुर्लभ प्रसाद की शादी। मामा के मांगलिक होने से कहानी में नया मोड़ आता है और मुरली के परिवार के सामने चुनौती खड़ी हो जाती है—बिना महिला के शादी नहीं होगी।
महक तब भीतर से टूट जाती है जब उसे पता चलता है कि मुरली के पिता की शादी होने वाली है। फिल्म की खूबी यही है कि कई साधारण संवाद भी हँसी पैदा कर देते हैं।
“बाबू जी करने चले शादी” गीत न सिर्फ़ कर्णप्रिय है, बल्कि पूरी फिल्म का भाव भी समेटे हुए है—यह इसका शीर्षक भी हो सकता था। दूल्हा-प्रदर्शनी वाला दृश्य और मुरली के मामा का किरदार फिल्म को और रंगीन बनाते हैं।
करीब एक घंटे बाद महिमा चौधरी की नाटकीय और प्रभावशाली एंट्री होती है। बबीता के रूप में उनका आगमन फिल्म में नया फ्लेवर घोल देता है। उन्हें देखते ही मुरली और महक को लगता है कि अब सारी परेशानियाँ खत्म हो जाएँगी।
दुर्लभ प्रसाद और बबीता की प्रेम कहानी शोर नहीं मचाती, बल्कि धीमे, संकोची और रोमांटिक अंदाज़ में आगे बढ़ती है। इसी के साथ कहानी करवट लेती है और नायक-नायिका के मिलन में नई बाधाएँ खड़ी हो जाती हैं। अब आगे क्या होगा, यह फैसला दर्शक खुद करते हैं।
दो घंटे दस मिनट की यह फिल्म कब हँसाते-हँसाते आँखें नम कर देती है, पता ही नहीं चलता। खास बात यह है कि फिल्म में दो नायक-नायिकाएँ हैं और किसी को भी नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं। गाने जब भी आते हैं, कहानी की रफ्तार को थामते नहीं, बल्कि उसे सहारा देते हैं।
निष्कर्ष:
‘दुर्लभ प्रसाद की शादी’ एक साफ-सुथरी, पारिवारिक और दिल से बनी मनोरंजक फिल्म है। संजय मिश्रा और महिमा चौधरी का सधा हुआ अभिनय फिल्म को बाँधे रखता है। यह फिल्म शोर नहीं करती, बस मुस्कुराते हुए अपनी बात कह जाती है—और यही इसकी सबसे बड़ी खूबी है।
⭐⭐⭐½ (3.5 स्टार)












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